
मौन बाँसुरी

एक दिन अकबर के दरबार में एक प्रसिद्ध दरबारी संगीतकार आया और बड़े गर्व से बोला,
"जहाँपनाह, मेरी बाँसुरी में इतनी आत्मा है कि जब मैं उसे बजाता हूँ, तो पक्षी भी रो पड़ते हैं।"
दरबार में कुछ दरबारी उसकी बात सुनकर प्रभावित हुए, तो कुछ ने उसे घमंडी समझा।
अकबर को भी आश्चर्य हुआ और उन्होंने तुरंत आदेश दिया,
"ठीक है, कल सुबह महल के बाग़ में आओ, और अपनी बाँसुरी बजाओ। हम देखना चाहते हैं कि तुम्हारी धुन का क्या असर होता है।"
अगली सुबह बाग़ में एक छोटी सभा लगी। चारों ओर पेड़ों पर पक्षी चहचहा रहे थे।
संगीतकार ने आँखें बंद कीं और बेहद भावुकता से बाँसुरी बजाने लगा। सुर सुंदर थे, लेकिन कुछ ही देर में सभी पक्षी डरकर उड़ गए।
दरबारियों की मुस्कान हँसी में बदल गई। सबको समझ आ गया था कि संगीतकार ने अपनी कला से ज़्यादा अपने दावे पर भरोसा किया था।
बीरबल ने धीरे से कहा,
"सच्ची कला को चिल्लाकर बताने की ज़रूरत नहीं होती। वह अपने आप बोलती है। जो संगीत दिल से निकले, वो दिखावा नहीं करता — बस असर करता है।"
संगीतकार को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने विनम्रता से बीरबल को प्रणाम किया और कहा,
"आज मेरी सबसे बड़ी शिक्षा इस मौन में मिली है।"
अकबर ने मुस्कराते हुए बीरबल की सराहना की।
नीति: सच्ची प्रतिभा को शोर की नहीं, आत्मा की ज़रूरत होती है।
काम शब्दों से अधिक गूंजते हैं।