सम्राट की परछाईं

सम्राट की परछाईं

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एक सुनहरी सुबह थी। सम्राट अकबर अपने महल की बालकनी में खड़े थे, सूर्य की किरणें उन्हें स्पर्श कर रही थीं। तभी उन्होंने नीचे ज़मीन पर अपनी परछाईं देखी। एक विचार उनके मन में आया और वे तुरंत दरबार पहुँचे।

दरबार में पहुँचते ही उन्होंने बीरबल से पूछा,
“बीरबल, बताओ — मेरे और मेरी परछाईं में कौन ज़्यादा महत्वपूर्ण है?”

सवाल सुनकर दरबारियों में हल्की मुस्कान फैल गई। उन्हें लगा, इसका उत्तर तो बहुत आसान है — भला सम्राट से अधिक महत्त्वपूर्ण कौन हो सकता है?

पर बीरबल ने शांत और गंभीर स्वर में उत्तर दिया,
“जहाँपनाह, आपकी परछाईं।”

अकबर चौंके। “मेरी परछाईं? वो तो बस मेरे साथ चलती है। ऐसा क्यों?”

बीरबल मुस्कुराए और बोले,
“जब आप स्वयं यहाँ नहीं होंगे, तब भी आपकी परछाईं — अर्थात् आपकी कीर्ति, आपकी अच्छाइयाँ और आपके कर्म — लोगों के दिलों और इतिहास में जीवित रहेंगे। एक राजा की असली पहचान उसकी उपस्थिति में नहीं, उसके द्वारा किए गए कार्यों में होती है।”

अकबर थोड़ी देर तक चुप रहे, फिर धीरे से बोले,
“बीरबल, तुमने मेरी सोच को एक नई दिशा दी है। मैं चाहता हूँ कि मेरी परछाईं लोगों के लिए प्रेरणा बने, बोझ नहीं।”

उन्होंने उसी क्षण से अपने निर्णयों और कार्यों में और अधिक विवेक और करुणा का भाव अपनाने का प्रण लिया।

नीति: विरासत शरीर से नहीं, कर्मों से बनती है।
        आप चले जाएँगे, लेकिन आपकी परछाईं — यानि आपके कर्म — सदा जीवित रहेंगे।