
सेवक का नाम

एक दिन सम्राट अकबर के महल में एक नया सेवक नियुक्त किया गया। वह बेहद कुशल, समर्पित, और तेज़ था — हर कार्य समय पर और बिना गलती के पूरा करता था। महल में उसके काम की तारीफ़ होने लगी।
लेकिन सभी ने एक बात नोटिस की — वह बहुत चुप रहता था। न वह किसी से बातचीत करता, न किसी का उत्तर देता, बस सिर झुकाकर कर्म में लगा रहता।
कुछ दिनों बाद, दरबार में चर्चा के दौरान अकबर ने उस सेवक को बुलवाया और पूछा:
“तुम्हारा नाम क्या है?”
सेवक ने सिर झुकाया — पर कुछ बोला नहीं।
अकबर ने दोबारा पूछा,
“तुम सुन नहीं रहे? तुम्हारा नाम क्या है?”
फिर भी कोई उत्तर नहीं आया — सेवक शांत खड़ा रहा।
दरबारियों में कुछ खुसर-पुसर होने लगी।
कुछ बोले, “शायद यह घमंडी है,”
दूसरे बोले, “कहीं यह गूंगा तो नहीं?”
तभी बीरबल मुस्कराते हुए आगे आए और बोले:
“जहाँपनाह, यह व्यक्ति भले ही बोलता नहीं, लेकिन इसकी खामोशी में एक भाषा है — कर्म की।
इसके काम में इतनी स्पष्टता है कि किसी नाम की ज़रूरत ही नहीं।
इसका काम ही इसका नाम है।”
अकबर थोड़ी देर सोच में पड़ गए, फिर बोले:
“ठीक है, यदि यह स्वयं कुछ नहीं कहता, तो हम इसका नाम रखते हैं — ‘निशब्द’।
क्योंकि कुछ मौन, बहुत कुछ कह जाते हैं।”
‘निशब्द’ अब पूरे महल में नम्रता, समर्पण और कार्य-कुशलता का प्रतीक बन गया।
नीति : “सच्ची पहचान शब्दों से नहीं — कर्म से बनती है।”
“कुछ लोग नाम से नहीं, अपने काम से जाने जाते हैं।”