धूलभरी किताब

धूलभरी किताब

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एक दिन सम्राट अकबर अपने पुस्तकालय में पुरानी किताबों का निरीक्षण कर रहे थे। वहाँ सैकड़ों ग्रंथ, पांडुलिपियाँ और हस्तलिखित कृतियाँ रखी थीं।

उनकी नज़र एक पुरानी किताब पर पड़ी — मुरझाए पन्ने, फटी जिल्द और धूल से ढकी हुई।
उन्होंने उसे उठाया, उलट-पलट कर देखा और दरबारियों से कहा:

“इस किताब का कोई उपयोग नहीं है। यह बेकार लगती है। इसे फेंकवा दो।”

कुछ सेवक किताब उठाने ही वाले थे कि बीरबल ने बीच में हस्तक्षेप किया।
वह बोले,
“जहाँपनाह, अगर अनुमति हो, तो मैं एक बार इसे देखना चाहूँगा।”

अकबर ने इशारा किया, “देख लो।”

बीरबल ने धीरे-धीरे किताब के पन्ने पलटना शुरू किया। कुछ पृष्ठ सूखे थे, कुछ काले हो चुके थे, लेकिन अचानक बीच में एक पन्ना खुला, जिस पर अद्भुत हस्तलिपि में एक दुर्लभ कविता लिखी थी — जो उस समय के प्रसिद्ध संत की रचना थी, जो अब किसी और जगह उपलब्ध नहीं थी।

बीरबल ने वह कविता ज़ोर से पढ़ी। उसकी पंक्तियाँ इतनी गहरी और सुंदर थीं कि दरबार में मौन छा गया।
अकबर मंत्रमुग्ध हो गए।

बीरबल मुस्कराए और बोले:

“जहाँपनाह, अगर आप इस किताब को सिर्फ़ उसके ऊपर जमी धूल के आधार पर फेंक देते, तो यह रत्न हमेशा के लिए खो जाता।”

“बहुत बार हम चीज़ों, लोगों या विचारों को सिर्फ़ उनके बाहरी रूप या वर्तमान दशा से आँकते हैं — लेकिन अंदर वे अनमोल हो सकते हैं।”

अकबर गहराई से बोले:
“बीरबल, आज तुमने मुझे एक बड़ी सीख दी — मूल्य बाहरी चमक में नहीं, अंतर के गुण में होता है।”

उन्होंने उस किताब को सम्मानपूर्वक सहेजने का आदेश दिया और पुस्तकालय के कर्मचारियों को निर्देश दिया कि किसी भी चीज़ को सिर्फ़ उसके स्वरूप से न आँकें।

नीति : “कभी भी किसी चीज़ या व्यक्ति का मूल्य उसके दिखावे से मत आँको — असली ख़ज़ाना अक्सर धूल के नीचे छिपा होता है।”
          “जो पुराना लगे, वह बेमोल नहीं होता — कभी-कभी वही सबसे अनमोल होता है।”