
हँसी का कर्ज़

एक दिन दरबार में एक मज़ेदार किस्सा सुनाया गया। पूरा दरबार ठहाकों से गूंज उठा — मंत्री, सेवक, यहाँ तक कि सम्राट अकबर भी हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।
लेकिन एक व्यक्ति चुप बैठा रहा — वह था नगर का सबसे प्रसिद्ध कंजूस व्यापारी। उसने ज़रा भी मुस्कुराने की ज़हमत नहीं उठाई।
बीरबल ने यह देख लिया, लेकिन कुछ नहीं कहा।
अगले दिन वही व्यापारी दरबार में किसी मामले से उपस्थित हुआ। काम पूरा होने पर बीरबल ने मुस्कराकर कहा,
“कल आपने दरबार में हँसी का आनंद उठाया था। कृपया उसका मूल्य चुकाइए।”
व्यापारी चौंक गया, “क्या? हँसी का भी कोई दाम होता है?”
बीरबल बोले, “बिलकुल नहीं... अगर आप उसे सहजता से बाँटते। लेकिन जब कोई हँसी को भी तिजोरी में बंद कर दे, तो उसकी कीमत वसूलनी पड़ती है।”
दरबार में हँसी की लहर दौड़ गई।
अकबर ने भी मुस्कराते हुए कहा, “बीरबल सही कहता है। खुशियाँ बाँटने से बढ़ती हैं, छुपाने से नहीं।”
व्यापारी लज्जित हुआ और बोला, “आज से मैं हँसी में भी उदार रहूँगा।”
नीति: कंजूसी सिर्फ़ पैसों की नहीं — खुशी की भी हो सकती है।
खुशियाँ बाँटने से घटती नहीं, औरों के जीवन को भी रौशन करती हैं।