सुनहरी परछाईं

सुनहरी परछाईं

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दरबार में एक दिन एक घमंडी अमीर आदमी आया। सिर ऊँचा, आवाज़ में अभिमान। उसने कहा,
“जहाँपनाह, मैं इतना धनवान हूँ कि मेरी परछाईं भी सोने की लगती है।”

दरबारी हँसे, लेकिन अकबर ने मुस्कुराते हुए बीरबल से पूछा,
“बीरबल, क्या परछाईं की कोई क़ीमत हो सकती है?”

बीरबल थोड़ी देर सोचते रहे, फिर बोले, “आइए, इस प्रश्न का उत्तर प्रयोग से दें।”

उन्होंने उस अमीर आदमी को धूप में खड़ा किया और उसकी परछाईं जहाँ पड़ रही थी, वहाँ एक शुद्ध सोने की थाली रख दी।
फिर कहा,
“आपने कहा था कि आपकी परछाईं सोने जैसी है — तो अब इसे बेच दीजिए। यहाँ तो सोना भी है।”

अमीर आदमी चुप हो गया। वह कुछ बोल न सका।
भीतर ही भीतर वह समझ गया कि उसने केवल दिखावे की बात की थी — जिसकी कोई वास्तविकता नहीं थी।

बीरबल ने शांत स्वर में कहा,
“धन तभी तक सुंदर है जब उसमें विनम्रता हो।
घमंड वह बोझ है जो परछाईं को भी भारी बना देता है — जबकि परछाईं का कोई वज़न नहीं होता।”

सम्राट अकबर ने सहमति में सिर हिलाया।
“बीरबल, तुमने घमंड को उसके ही शब्दों से हराया है।”

नीति: जहाँ वास्तविक मूल्य नहीं होता, वहाँ घमंड ही भार बन जाता है।
        परछाईं जैसी हल्की चीज़ भी भारी लगने लगती है जब उसे अभिमान से ढंका जाए।