सम्राट का वेश

सम्राट का वेश

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एक रात अकबर को यह जानने की जिज्ञासा हुई कि उनके राज्य में आम लोग कैसा व्यवहार करते हैं, खासकर अजनबियों और गरीबों के प्रति।
उन्होंने तय किया कि वे राजा का वेश छोड़, साधारण गरीब व्यक्ति की तरह नगर में घूमेंगे।

उन्होंने पुराने फटे कपड़े पहने, चेहरे पर थोड़ा कालिख लगाया और बिना किसी अंगरक्षक के, रात के अंधेरे में शहर की गलियों में निकल पड़े।

चलते-चलते वे एक मिठाई की दुकान के पास पहुँचे। उन्होंने दुकानदार से थोड़ा खाने को माँगा।
दुकानदार ने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा और फिर घृणा से बोला,
“भाग यहाँ से, भिखारी कहीं का! मेहनत कर, भीख मत माँग!”

अकबर ने शांत रहकर कुछ नहीं कहा और चुपचाप लौट गए।

अगले दिन दरबार लगा।
उसी दुकानदार को भी दरबार में आमंत्रित किया गया — उसे बताया गया था कि सम्राट स्वयं उसे मिलने के लिए बुला रहे हैं।

दुकानदार उत्साहित होकर मिठाइयाँ और उपहार लेकर दरबार पहुँचा।
जैसे ही उसकी नज़र सिंहासन पर बैठे सम्राट अकबर पर पड़ी — उसकी साँसें थम गईं।
वह पहचान गया कि ये वही व्यक्ति हैं जो पिछली रात उसकी दुकान पर गरीब के वेश में आए थे।

उसका चेहरा पीला पड़ गया। वह काँपते हुए बोला,
“जहाँपनाह, मुझे माफ़ कीजिए — मैं आपको नहीं पहचान पाया।”

बीरबल मुस्कराए और बोले,
“यही तो बात है। दयालुता पहचान से नहीं, आत्मा से होनी चाहिए। जब हम किसी को केवल उसके कपड़ों से जज करते हैं, तो हम अपने चरित्र की सच्चाई खो देते हैं।”

अकबर ने उसे माफ़ कर दिया, लेकिन पूरे दरबार को यह शिक्षा दी:

“हर व्यक्ति, चाहे राजा हो या रंक — उसके साथ सम्मान से व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि किसी की असली पहचान उसकी वेशभूषा में नहीं — उसकी मानवता में होती है।”

नीति : “हर व्यक्ति का सम्मान करो — चाहे उसका रूप, कपड़े या हालत कैसी भी हो।”
          “दयालुता तब सच्ची होती है जब वह बिना पहचान और स्वार्थ के दी जाए।”