रेत की घड़ी

रेत की घड़ी

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एक दिन सम्राट अकबर ने निश्चय किया कि वे अब हर घंटे का लेखा-जोखा स्वयं रखेंगे।
उन्होंने एक सुनहरी कटोरी में साफ़ रेत भरवाई और आदेश दिया कि हर घंटे के बाद वे उसमें से एक मुट्ठी रेत गिराएँ —
इस तरह वे "समय को देख सकेंगे।"

यह व्यवस्था कुछ दिन चली।
हर बैठक के बाद, हर कार्य के अंत में — अकबर एक रेत की मुट्ठी गिराते और कहते,
“एक और घंटा बीत गया।”

लेकिन जल्द ही, बीरबल ने देखा कि अकबर का ज़्यादातर समय अनावश्यक दरबारियों, व्यर्थ योजनाओं और लंबी बैठकों में जा रहा है —
जिनसे न तो राज्य को लाभ हो रहा था, न ही जनता को।

एक दिन बीरबल ने मुस्कराते हुए अकबर से पूछा:

“जहाँपनाह, आपने आज कितनी मुट्ठियाँ रेत की गिराईं?”
अकबर बोले, “पाँच। यानी आज पाँच घंटे बीत चुके हैं।”

बीरबल ने सिर झुकाया और शालीनता से बोले:

**“लेकिन क्या आपने महसूस किया कि उन पाँच घंटों में राज्य के लिए क्या उपयोगी कार्य हुआ?
क्योंकि समय सिर्फ़ रेत गिराने से नहीं चलता — वह तो चलता है कैसे हमने उसे जिया, उसमें क्या किया।”

फिर उन्होंने एक पुरानी कहावत दोहराई:

“समय को घड़ी नहीं मापती — कार्य मापते हैं।”

अकबर चुप हो गए।

उसी क्षण उन्होंने कई फालतू दरबारी चर्चाएँ रद्द कर दीं, और हर मंत्री को आदेश दिया कि
हर बैठक में मूल्य, सार और परिणाम स्पष्ट हों — वरना वह समय बर्बाद माना जाएगा।

नीति : “समय को घंटों से नहीं, उसके उपयोग से मापा जाता है।”
          “हर बीता क्षण अमूल्य है — उसे उद्देश्य से भर दो, वरना वह सिर्फ़ रेत बन जाएगा।”