दो दर्पण

दो दर्पण

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एक दिन सम्राट अकबर ने दरबार में पूछा,
“बीरबल, लोग राजा को कैसे देखते हैं? क्या वे सच्चाई जानते हैं, या बस बाहरी दिखावा?”

बीरबल मुस्कराए। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि अगली सुबह एक खास इंतज़ाम किया।

दरबार लगने से पहले बीरबल सम्राट के आसन के सामने दो दर्पण रखवाए —
एक बिल्कुल चमकदार साफ़ था, और दूसरा धूल और धुँध से भरा हुआ, जिसमें चेहरा धुंधला दिखाई देता था।

अकबर ने चकित होकर पूछा,
“यह क्या है, बीरबल?”

बीरबल ने विनम्रता से कहा,
“जहाँपनाह, ये दर्पण जनता की दृष्टि हैं। जब राजा न्याय करता है, निष्पक्ष निर्णय लेता है, और सबके साथ समानता से पेश आता है — तो लोग उसे इस साफ़ दर्पण की तरह स्पष्ट रूप में देखते हैं — आदर और भरोसे के साथ।”

“पर जब राजा अन्याय करता है, पक्षपात करता है, या सत्ता का दुरुपयोग करता है — तब उसकी छवि जनता के लिए धुँधली हो जाती है, जैसे इस दूसरे दर्पण में चेहरा साफ़ नहीं दिखता।”

दरबार में मौन छा गया। अकबर ने खुद को दोनों दर्पणों में देखा — एक में उनका चेहरा चमक रहा था, दूसरे में धुँधला और अस्पष्ट।

उन्होंने गहराई से सिर हिलाया और बोले,
“बीरबल, आज तुमने मुझे मेरी असली ज़िम्मेदारी दिखा दी। अब मैं और भी सचेत रहूँगा कि मेरे निर्णय लोगों की नज़र में मेरी छवि का निर्माण करते हैं।”

उस दिन से अकबर ने और भी सतर्कता से न्याय करना शुरू किया — हर फ़ैसले में यह सोचकर कि वह दर्पण किस प्रकार का बन रहा है।

नीति : “शासक की असली पहचान उसके न्याय में होती है — न कि सिंहासन में।”
          “जनता का विश्वास एक दर्पण है — साफ़ वही रहता है, जिसमें न्याय झलकता है।”