
आस्था का सवाल

एक दिन दरबार में एक प्रसिद्ध विद्वान आया। वह दूर-दूर से प्रसिद्ध था और अपने ज्ञान का बड़ा घमंड करता था।
उसने गर्व से सम्राट अकबर के सामने कहा,
“जहाँपनाह, मैंने दुनिया के हर प्रमुख धार्मिक ग्रंथ — वेद, बाइबल, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब और कई अन्य — पढ़ लिए हैं। मैं अब धर्म और जीवन का सारा ज्ञान जान चुका हूँ।”
दरबार में कुछ लोग उसके ज्ञान से प्रभावित हुए, तो कुछ चुप रहे।
अकबर ने विचार करते हुए पूछा,
“तो क्या इसका मतलब है कि तुम अब सबसे ज्ञानी और समझदार व्यक्ति हो?”
विद्वान ने मुस्कराकर सिर हिलाया, “बिलकुल, जहाँपनाह।”
अकबर ने बीरबल की ओर देखा, जो अब तक शांत बैठे सब देख-सुन रहे थे।
बीरबल धीरे से बोले,
“आपका कहना सही हो सकता है, लेकिन एक प्रश्न है — क्या सिर्फ़ रसोई की किताबें पढ़ लेने से किसी की भूख मिट जाती है?”
विद्वान थोड़ा चौंका और बोला,
“नहीं, केवल पढ़ने से नहीं — खाना तो खाना पड़ता है।”
बीरबल मुस्कराए और बोले,
“बस यही बात ज्ञान पर भी लागू होती है। किताबों के शब्द जान लेना, मंत्र याद कर लेना या ग्रंथों का पाठ कर लेना ‘ज्ञान’ नहीं कहलाता — जब तक वह जीवन में उतरे नहीं, जब तक अनुभव के रूप में उसे जिया न जाए, वह अधूरा ही रहता है।”
फिर उन्होंने एक और गहरी बात कही:
“धर्म पढ़ने से नहीं, समझने और जीने से आता है। जैसे भोजन की गंध से भूख नहीं मिटती — वैसे ही शब्दों से आत्मा नहीं तृप्त होती।”
अकबर ने संतोषपूर्वक सिर हिलाया और पूरे दरबार ने बीरबल की बात से सहमति जताई।
नीति : “ज्ञान केवल पढ़ने से नहीं, अनुभव से आता है।”
“धार्मिक ग्रंथों को जानना आसान है — उन्हें जीवन में उतारना असली समझ है।”