अंधा मूर्तिकार

अंधा मूर्तिकार

bookmark

एक दिन सम्राट अकबर दरबार में थे, जब उन्हें एक अनोखे कलाकार के बारे में बताया गया। कहा गया कि वह मूर्ति बनाने में निपुण है, और उसकी बनाई मूर्तियाँ इतनी जीवंत होती हैं कि लोग उन्हें असली समझ बैठते हैं — लेकिन वह अंधा है।

अकबर को यह जानकर अचंभा हुआ। उन्होंने तुरंत उस मूर्तिकार को दरबार में बुलवाया।

कुछ दिनों बाद, दरबार में एक विशाल पत्थर की हाथी की मूर्ति लाई गई — इतनी सुंदर और सजीव कि मानो असली हाथी हो। सभी दरबारी उस कला को देखकर चकित रह गए।

अकबर ने पूछा,
“क्या यह मूर्ति उसी अंधे मूर्तिकार ने बनाई है?”

बीरबल बोले,
“जी हाँ, जहाँपनाह।”

मूर्तिकार को दरबार में लाया गया। वह शालीनता से सिर झुकाकर खड़ा था।
अकबर ने आश्चर्य से पूछा,
“तुम देख नहीं सकते, फिर भी इतनी बारीकी और सुंदरता के साथ मूर्ति कैसे बना ली?”

मूर्तिकार ने शांत स्वर में उत्तर दिया:
“जहाँपनाह, मैं देख नहीं सकता, लेकिन मेरे हाथ देख सकते हैं। मेरी उँगलियाँ हर उभार, हर आकार को महसूस करती हैं।
मैं आँखों से नहीं, संवेदनाओं से देखता हूँ।”

दरबार में सन्नाटा छा गया।

बीरबल ने अकबर की ओर देखा और कहा:
“हम अक्सर सोचते हैं कि दृष्टि केवल आँखों से होती है। लेकिन सच्ची दृष्टि — समझ, अनुभव, और संवेदना से आती है।”

“कुछ लोग देखकर भी नहीं समझते, और कुछ बिना देखे सृष्टि की सुंदरता गढ़ देते हैं।”

अकबर गहरे भाव से बोले,
“आज मैंने सीखा — ज्ञान और कला दिल और मन से जन्म लेते हैं, आँखों से नहीं।”

उन्होंने उस मूर्तिकार को सम्मानित किया और उसकी कला को राज्यभर में प्रसिद्ध करने का आदेश दिया।

नीति : “सच्ची दृष्टि आँखों में नहीं, समझ और संवेदना में होती है।”
          “देखना आवश्यक नहीं — महसूस करना सबसे बड़ा ज्ञान है।”